मुर्शिदाबाद हिंसा के बाद पश्चिम बंगाल में राजनीति अपने चरम पर

श्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद में भड़की हिंसा के बाद तुष्टिकरण की राजनीति चर्चा में है। जानिए कैसे हालात बने तनावपूर्ण और क्या है राजनैतिक चुप्पी का कारण।

पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद ज़िले में हाल ही में भड़की हिंसा के बाद प्रदेश की राजनीति एक बार फिर चर्चा का विषय बन गई है।

इस सांप्रदायिक झड़प में कई कारों और बसों को आग के हवाले कर दिया गया।

हिंसा की गंभीरता का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि लगभग 5000 लोगों की भीड़ ने ट्रेन रोक दी, जिससे कई रेलगाड़ियाँ रद्द करनी पड़ीं

और कई ट्रेनों के रूट को डायवर्ट किया गया।

इस हिंसा में न केवल सरकारी संपत्तियों को नुकसान हुआ, बल्कि आम जनता की दुकानों और घरों को भी नुकसान पहुँचा।

डर का माहौल ऐसा बना कि कई हिंदू परिवारों को अपना घर छोड़कर सुरक्षित स्थानों की ओर पलायन करना पड़ा।

स्थिति पर नियंत्रण पाने के लिए अब बीएसएफ के लगभग 1600 जवानों को तैनात किया गया है।

प्रशासन के अनुसार हालात अब नियंत्रण में हैं, लेकिन तनाव अभी भी बना हुआ है।

राजनीति की चुप्पी: क्यों नहीं बोल रही विपक्षी पार्टियाँ?

सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि इस हिंसा पर तथाकथित सेक्युलर और विपक्षी पार्टियाँ पूरी तरह मौन हैं।

इसका मुख्य कारण यह बताया जा रहा है कि पश्चिम बंगाल की सत्ता में ममता बनर्जी की सरकार है,

जो इंडिया गठबंधन की सदस्य भी हैं। यही वजह है कि अधिकतर विपक्षी नेता इस मुद्दे पर चुप्पी साधे हुए हैं,

क्योंकि उन्हें मुस्लिम वोट बैंक की चिंता है, न कि देश की अखंडता या आम नागरिकों की सुरक्षा की।

राजनीति का पतन: क्या वोट ही सब कुछ है?

देश की राजनीति अब उस स्तर पर पहुँच चुकी है जहाँ सिर्फ वोटों के लिए गलत को भी गलत कहने से कतराया जा रहा है।

चाहे दंगे हों या किसी समुदाय विशेष का उत्पात,

राजनीतिक दल अब तुष्टिकरण की नीति अपनाकर मौन रहना ही उचित समझते हैं।

वक्फ बिल का विरोध और उससे जुड़ी हिंसा

वहीं दूसरी ओर, पूरे देश में वक्फ बिल को लेकर भी तीव्र विरोध देखने को मिल रहा है।

कई जगहों पर यह विरोध हिंसक रूप भी ले चुका है।

विरोध कर रहे लोगों का कहना है कि इस बिल के ज़रिए देश की जमीनों पर एकतरफा कब्ज़े को वैधता दी जा रही है।

हालांकि सरकार का तर्क है कि इस बिल में कुछ संशोधन किए गए हैं जिससे गरीब मुसलमानों को लाभ मिलेगा,

लेकिन जनता का विश्वास इससे नहीं बन पा रहा है।

कई राजनीतिक जानकारों का मानना है कि सरकारों को अब मुस्लिम वोट बैंक को साधने की इतनी चिंता हो गई है कि

देश की एकता, शांति और संविधान को भी ताक पर रखा जा रहा है।

एकतरफा सहनशीलता: क्या यह न्याय है?

देश में एक ओर हिंदू समुदाय न्यायालयों में वर्षों तक केस लड़ता है, तब जाकर उन्हें अपने धार्मिक स्थलों पर अधिकार मिलता है —

जैसा कि अयोध्या में श्रीराम मंदिर के मामले में हुआ, जो 500 वर्षों के बाद संभव हो पाया।

लेकिन दूसरी ओर,

कुछ कट्टरपंथी ताकतें न केवल देश के कानून और व्यवस्था को चुनौती देती हैं,

बल्कि धार्मिक सौहार्द को भी चोट पहुँचाती हैं।

इन हालातों में सवाल उठता है कि जो लोग देश के मूल सिद्धांतों — धर्मनिरपेक्षता, समानता और न्याय — की बात करते हैं,

क्या वे खुद उस सिद्धांत का पालन कर रहे हैं?

या फिर वे केवल वोटों के गणित में ही उलझे हैं?

निष्कर्ष: देश पहले या राजनीति?

आज देश को सबसे ज़्यादा ज़रूरत है निष्पक्ष सोच, ईमानदार नेतृत्व और स्पष्ट नीति की।

यदि दंगे, तुष्टिकरण और धर्म के नाम पर भेदभाव को राजनीतिक समर्थन मिलता रहा,

तो देश को सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से गहरा नुकसान हो सकता है।

एकजुटता ज़रूरी है, लेकिन गलत के साथ खड़ा होना एकता नहीं, अंधापन है।

मुर्शिदाबाद

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