भारत में नौकरी पाना जितना मुश्किल है, उसे निभाना उससे भी कठिन है।
पढ़ें एक कर्मचारी की सच्ची कहानी जो आज की कॉर्पोरेट ज़िंदगी को उजागर करती है।

सच है, आज की ज़िंदगी में बहुत संघर्ष है
एक आम भारतीय कर्मचारी की कहानी, जो हर किसी को झकझोर देती है
परिचय: संघर्ष से भरी आज की नौकरीपेशा ज़िंदगी
आज के समय में भारत में नौकरी पाना और उसे निभाना दोनों ही आसान नहीं हैं।
पढ़ाई खत्म करने के बाद लोग सोचते हैं कि एक अच्छी नौकरी मिलते ही ज़िंदगी सुलझ जाएगी।
लेकिन सच्चाई इससे बिल्कुल उलट है। असली जंग तो नौकरी लगने के बाद शुरू होती है।
नौकरी पाने के लिए केवल टैलेंट नहीं, जुगाड़ भी चाहिए
भारत जैसे देश में टैलेंट होना ही काफी नहीं है।
अगर आप में टैलेंट है लेकिन कोई पहचान, नेटवर्क या “जुगाड़” नहीं है, तो नौकरी मिलना भी मुश्किल हो सकता है।
वहीं, अगर आपके पास जुगाड़ है, तो बिना ज़्यादा काबिलियत के भी आप एक अच्छी पोजीशन हासिल कर सकते हैं।
नौकरी मिल गई, क्या अब ज़िंदगी आसान हो गई?
ऐसा सोचना भ्रम है।
नौकरी लगने के बाद जो प्रेशर और टारगेट्स का बोझ शुरू होता है, वो इंसान को मानसिक, शारीरिक और भावनात्मक रूप से थका देता है।
कर्मचारी से उम्मीद की जाती है कि वह मशीन की तरह बिना थके, बिना शिकायत के काम करता रहे।
एक वास्तविक कहानी: क्या मैं सच में मर रहा हूं?
बेंगलुरु के एक कर्मचारी की कहानी इन सब बातों की सच्चाई को उजागर करती है।
उन्होंने एक वायरल रेडिट पोस्ट में अपनी आपबीती साझा की, जिसमें उन्होंने बताया कि कैसे 14-16 घंटे काम करते-करते उनकी ज़िंदगी एक बोझ बन चुकी है।
“जैसे आप सब हैं, मैं भी भारत का एक कॉर्पोरेट गुलाम हूं,” उन्होंने लिखा।
शुरुआत अच्छी लगी, लेकिन धीरे-धीरे सब बिगड़ता गया
इस कर्मचारी ने अगस्त 2022 में अपनी वर्तमान कंपनी जॉइन की थी।
तीन साल से भी कम समय में उनका वज़न 24 किलो बढ़ गया है। सोने का कोई ठिकाना नहीं—कभी रात के 2 बजे सोते हैं तो कभी 11 बजे, लेकिन सुबह 9 बजे ऑफिस में हमेशा मौजूद होते हैं।
निजी ज़िंदगी की बलि चढ़ गई
उनकी माँ को उनकी सेहत की चिंता है, लेकिन वह खुद को बदल नहीं पा रहे।
उन्होंने बताया कि पिछले ढाई साल में वह कहीं घूमने नहीं गए—यहां तक कि बेंगलुरु के पास स्थित नंदी हिल्स भी नहीं। उनकी गर्लफ्रेंड ही एकमात्र पॉज़िटिव इंसान हैं ज़िंदगी में, लेकिन उन्हें भी समय नहीं दे पा रहे।
ऑफिस कल्चर या गुलामी?
वह लिखते हैं कि वे लगभग हर वीकेंड में काम करते हैं, छुट्टियाँ कैंसिल कर देते हैं, और एक आदर्श कर्मचारी बनने की हर कोशिश करते हैं। फिर भी उन्हें कोई खुशी नहीं मिलती। मन में खालीपन और थकावट भर गई है।
“मैंने सब कुछ किया एक अच्छा कर्मचारी बनने के लिए, लेकिन अब भी मैं खुद को खाली और थका हुआ महसूस करता हूं।”
जवानी चूस लेती हैं निजी कंपनियाँ
निजी कंपनियों में काम करने वाले अधिकतर कर्मचारियों की यही कहानी है। उन्हें सिर्फ एक ‘परफॉर्मिंग मशीन’ समझा जाता है। बॉस को सिर्फ रिजल्ट चाहिए, न कि आपकी सेहत, मनोदशा या निजी जीवन की परवाह। ऐसा लगता है जैसे आपकी जवानी का हर पल खींच लिया गया हो और जब आप किसी काम के नहीं रहते, तो आपको रिटायर कर दिया जाता है।
मानसिक थकावट का कोई इलाज नहीं?
वह व्यक्ति कहता है कि अब इतनी मानसिक थकान हो गई है कि वह कोई नया अवसर तलाशने का भी हौसला नहीं जुटा पा रहा है। छुट्टी लेने की हिम्मत नहीं बची। वह सोचते हैं:
“अब मैं क्या करूं? क्या मैं सच में मर रहा हूं?”

ये सिर्फ एक व्यक्ति की कहानी नहीं है, बल्कि हम सब की सच्चाई है
यह कहानी अकेले उस कर्मचारी की नहीं है। देश के लाखों युवा इसी सिस्टम का हिस्सा हैं जो उन्हें थका चुका है। सुबह से रात तक काम, वीकेंड में भी ड्यूटी, ना खुद के लिए समय, ना परिवार के लिए।
क्या है समाधान?
1. वर्क-लाइफ बैलेंस पर ज़ोर देना जरूरी है
कर्मचारियों को समय पर काम खत्म करने का अधिकार और मानसिक शांति मिलनी चाहिए।
2. कंपनियों को कर्मचारी नहीं, इंसान समझना होगा
हेल्थ, फैमिली टाइम और पर्सनल ग्रोथ को भी उतना ही महत्व मिलना चाहिए जितना टारगेट्स को।
3. खुद के लिए खड़े होइए
अगर आप महसूस करते हैं कि नौकरी आपकी सेहत और जीवन को खा रही है, तो ब्रेक लेना ज़रूरी है। काम ज़रूरी है, लेकिन उससे ज़्यादा ज़रूरी है आपका जीवन।
4. सरकार और नीति निर्माताओं की भूमिका
श्रम कानूनों को मज़बूत करना होगा ताकि कर्मचारियों का शोषण न हो।
निष्कर्ष: यह दौर आसान नहीं है, लेकिन हम अकेले नहीं हैं
आज की कॉर्पोरेट दुनिया में नौकरी करना एक जंग बन गया है। लेकिन जरूरी है कि हम अपनी सीमाओं को समझें, अपनी सेहत और ज़िंदगी को प्राथमिकता दें और अगर ज़रूरत हो तो रुककर खुद को फिर से जियें।
क्योंकि नौकरी तो मिल सकती है, लेकिन अगर ज़िंदगी ही न रही, तो फिर किस काम की सफलता?