[बैंकिंग]भारत में अधिकतर युवा जब 25-26 साल की उम्र तक पढ़ाई पूरी करते हैं, तो उनका मुख्य उद्देश्य होता है –
एक अच्छी नौकरी। खासकर मिडिल क्लास और लोअर मिडिल क्लास परिवारों में पढ़ाई का मकसद सिर्फ नौकरी पाना ही होता है। और जब बात आती है ग्रेजुएशन के बाद सबसे अच्छी नौकरी की, तो ज़्यादातर लोग बैंकिंग सेक्टर की ओर देखते हैं।
जब सपना होता है ऊँचाईयों को छूने का…
कॉलेज में पढ़ने वाला एक मासूम सा लड़का या लड़की सोचता है कि जैसे ही डिग्री मिलेगी,
दुनिया मेरी होगी। सपने इतने बड़े होते हैं कि खुद को एक हीरो समझ बैठते हैं।
लेकिन जैसे ही हाथ में डिग्री आती है, हकीकत की चादर सपनों की धूल को झाड़ देती है।
वो जो दुनिया जीतने निकला था, अब अपने और अपने परिवार के लिए दो वक़्त की रोटी जुटाने की जद्दोजहद में फंस जाता है।

“आज के दौर में अगर कोई इंसान अपने और अपने परिवार का पेट भर पाए, तो वो भी अपने आप में एक सफलता है।”
बैंकिंग में शुरुआत – 12,000 रुपये की नौकरी और 20 लाख का टारगेट
बैंकिंग की नौकरी, जो बाहर से ‘सीटिंग जॉब’ लगती है, असल में ‘सेल्स की जॉब’ होती है।
यहां आपको स्कूटर या बाइक पर दिनभर दौड़ना पड़ता है।
महीने की तनख्वाह होती है ₹12,000, लेकिन टारगेट होता है ₹20 लाख का।
आपने कॉलेज में 4-5 लाख खर्च किए, 3-4 साल की जिंदगी पढ़ाई में लगा दी – और मिला क्या? एक मानसिक तनाव भरी नौकरी, जिसमें रोज़ आपको बोला जाएगा: “टारगेट पूरा करो, नहीं तो…”
“सीटिंग जॉब” का सच – ना सुकून, ना सम्मान
जैसे ही आप नौकरी शुरू करते हैं, आप पर रोज़ टारगेट का प्रेशर डाला जाएगा।
अगर आप टारगेट पूरा नहीं कर पाए, तो आपकी बेइज्जती ऑफिस में खुलेआम होगी।
और अगर टारगेट पूरा कर भी लिया, तो इनाम के रूप में अगली बार का टारगेट और बढ़ा दिया जाएगा – ₹20 लाख से सीधा ₹24 लाख।
“यहाँ आपके सीनियर ही नहीं, उनके सीनियर भी आपको दोषी मानते हैं। और ये चेन ऊपर तक जाती है।”
बॉस अच्छा है? तब तक ही, जब तक आप टारगेट लाओ।
अगर आज आपको लगता है कि आपका बॉस अच्छा है, तो सोचना…
जब आप टारगेट पूरा नहीं कर पाएंगे, तब भी क्या वही बॉस आपके साथ खड़ा रहेगा?
एक असली किस्सा – मार्च में दारू और डिप्रेशन
मार्च महीने में एक सीनियर को मैंने ऑफिस में दारू पीते देखा। पूछा – “सर, ये क्या?”
उन्होंने कहा – “मार्च है, टारगेट का प्रेशर इतना है कि अपने बॉस का फोन उठाने की हिम्मत चाहिए, इसलिए पी रहा हूँ।”
उस दिन समझ आया – क्या यही ज़िंदगी है? क्या हम इसी के लिए पैदा हुए थे?
मोदी जी का ‘पकौड़े बेचो’ वाला बयान आज सच्चा लगता है।
कम से कम पकौड़े बेचने में इंसान मानसिक रूप से परेशान तो नहीं होता। एक छोटा बिज़नेस शुरू कर लो, अपनी मेहनत का मालिक खुद बनो। पैसा भी ज्यादा और इज़्जत भी।
जिम्मेदारी और बदलाव की सीख
जो लड़का अपने दोस्तों की बर्थडे पार्टी खुद स्पॉन्सर करता था, आज ₹100 खर्च करने से पहले 10 बार सोचता है। वही दोस्त अब कहते हैं – “तू तो बदल गया है यार!”
लेकिन वो क्या बताए कि अब वो ‘बड़ा’ हो गया है। अब वो जिम्मेदार है। अब वो समझ चुका है कि जिंदगी सिर्फ ऐश करने का नाम नहीं, जिम्मेदारियों का भी है।
“जिसने कभी आसमान को अपना कहा था, आज अपनी छोटी-सी फैमिली की खुशी में ही सारा जहां देखता है।”
अंत में…
बैंकिंग की प्राइवेट नौकरी एक ऐसी राह है, जहां सपने बोझ बन जाते हैं और मेहनत की कीमत कभी-कभी सम्मान से कम मिलती है। लेकिन यहीं से लोग सीखते हैं – मेहनत क्या होती है, पैसा क्या होता है और जिंदगी की असली जिम्मेदारी क्या होती है।
क्योंकि जब आपकी मेहनत सिर्फ आपकी नहीं होती, तब आप समझ जाते हैं कि आप वाकई बड़े हो गए हैं।
“वो जिसे आसमान भी अपना लगता था, वो अब अपनी छोटी-सी फैमिली में सिमट गया है।”

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